महाभारत युद्ध समाप्त
होने के उपरांत
कुछ सैनिक एक
पिता और पुत्री
को बंदी बनाकर
महाराज युधिष्ठिर के राज
दरबार में ले
आए। युद्धिष्ठिर के
पूछने पर सैनिकों
ने पिता पुत्री
पर परस्पर यौन
सम्बन्ध स्थापित करने का
अपराध बताया।युद्धिष्ठिर स्तब्ध
रह गए फिर
उन्होंने पिता से
पूछा क्या यह
सही है। पिता
ने हां महराज
कहकर स्वीकारा। अब
तो युद्धिष्ठिर हतपभ
हो उन्होंने पिता से
पूछा क्या ऐसा
घोर दुष्कर्म करते
हुए तुम्हें लज्जा
नहीं आई। उसका
उत्तर था आई
महराज। तो फिर
तुमने ऐसा क्यों
किया। उसका उत्तर
था-महाराज मेरी
पुत्री युवा हो
गई है उसमें
कामोत्तेजना स्वाभाविक है क्योंकि
विवाह योग्य कोई
युवक नहीं मिला
इसलिए कहते-कहते वह
रो पड़ा। युद्धिष्ठिर
ने पूछा युवक
क्यों नहीं मिला।
पिता ने कहा
महराजा महाभारत के युद्ध
में सभी युवक
मारे गए अब
तो केवल वृद्ध
या शिशु ही
बचे हैं।युद्धिष्ठिर को
बहुत ग्लानि हुई
और वे राजपाट
छोड़कर अपने भाइयों
के साथ हिमालय
चले गए। आगे
की कथा सभी
का मालूम है।
मैंने यह आख्यान
एक कथा वाचक
से सुना था।
आज इस कथा
का स्मरण इसलिए
हुआ कयोंकि इधर
पिता द्वारा अपनी
पुत्रियों से-नाबालिक
पुत्रियों से-यौन
सम्बन्ध स्थापित करने की
अनेक समाचार निरंतर
पढ़ने को मिल
रहे हैं। इसका
विरोध करने पर
पत्नियों की बुरी
तरह पिटाई भी
होती है। भारत
में युवाओं का
अभाव नहीं है।आबादी
का पैंस" पतिशत
चालीस वर्ष से
कम आयु का
ही है। जिस
घिनौने आचरण की
जानकारी से युद्धिष्ठिर
को ग्लानि हुई
थी, उससे भी
भयावह घटनों नित्य
घट रही हैं।
शायद ही कोई
स्थान ऐसा बचा
हो जहां से
यौन शोषण के
समाचार न आता
हो। चलती बस
और कारों में
इस पकार के
जघन्य अपराध कामातुर
नशेड़ियों और सम्पन्न
या पभावशाली घराने
के लाडलों का
खास शौक बन
गया है। राजपाट
छोड़ना तो दूर
रहा इससे ``क्षुब्ध''
ने बयान देना,
सख्त कानून बनाने
का आश्वासन देना,
जिसमें मृत्युदंड भी शामिल
है, का आश्वासन
देना आम बात
हो गई है।
कुछ लोग तो
ऐसे लोगों को
चौराहे पर फांसी
देने की मांग
उ"रहे हैं।
राजनीतिक नेतृत्व पुलिस के
माथे "rकरा फोड़ते
हुए उन्हें सेवा
से निष्कासित या
निलंबित करने जैसा
कदम उकर अपनी
पी" थपथपा रही है
और आम लोग
थानों का घेराव
कर उसे पूंक
रहे हैं। पुलिस
उन पर ला"ाr बरसा
रही है।
पीड़िता की पहचान
गोपनीय रखने के
लिए उसे कभी
दामिनी, मर्यादा या गुड़िया
का नाम दिया
जाता है लेकिन
``विस्तार से'' जानकारी
उपलब्ध कराने की मीडिया
की होड़ सब
कुछ पगट कर
देती है। और
नेता घर जाकर
सहानुभूति मेला लगाते
हैं। एक टीआरपी
बढ़ाने के लिए
और दूसरे वोट
बैंक तैयार करने
के इस तरीके
से पीड़िता की
पहचान ``छिपाते'' हैं।
पुलिस हर निजी
कार या अन्य
यातायात के साधनों
गली मुहल्ले, झाड़ियां,
झरने या इसी
पकार के उन
स्थानों पर तो
उपलबध नहीं रह
सकती जहां घटनाएं
घटित होती हैं
लेकिन ऐसे अपराधियों
को पकड़ने में
जनरोष और गद्दी
बचाए रखने की
चिंता में लिप्त
राजनीतिकों में उत्पन्न
भय से भयभीत
पुलिस इन दिनों
काफी तत्पर है।
और सभी पकड़े
गए लोग पुलिस
के सामने अपना
अपराध भी कबूल
कर लेते हैं
और अदालत में
पलट जाते हैं।
संदेह के लाभ
में छूट जाते
हैं। यौन शोषण
वह भी अबोध
बालिकाओं का क्यों
बढ़ता जा रहा
है इस पर
सभी टीवी चैनलों
की बार-बार
होने वाली चर्चा
में जो मत
महिलों, विशेषज्ञ या राजनीतिक
नेता अथवा `स्वैच्छिक'
संस्थाओं के पतिनिधियों
की भागीदारी रहती
है उन सभी
का ऐसे अपराधियों
को कड़ा से
कड़ा दंड देने
की अभिव्यक्ति से
अब जल्दी से
जल्दी मृत्यु दंड
देने की पहती
है। इन अपराधों
को निपटाने के
लिए विशेष अदालतें
ग"ित करने
की भी मांग
हो रही है।
किसी फिल्म में
एक संवाद सुनने
को मिला था
कि तारीख पर
तारीख पर न्याय
कब मिलेगा। हम
अपराधों को रोकने
के लिए कानून
को सख्त से
सख्त बनाने की
गति ज्यों-ज्यों
बढ़ाते जा रहे
हैं उससे दूनी
गति से वे
अपराध भी बढ़
रहे हैं। यह
सब उसी पकार
का पयास है
जैसे बाढ़ आने
पर उसे रोकने
का। बाढ़ न
आए इसका उपाय
सोचने का पयास
नहीं होता। वैसे
ही चौतरफा यौन
अपराधों पर दंडित
करने के कानून
को हम सख्त
करने की पहल
में यह विचार
करने की दिशा
नहीं पकड़ पा
रहे हैं कि
ये अपराध होते
क्यों हैं? कारण
नहीं निवारण पर
ही-चर्चा हो
रही है। यह
विचार नहीं किया
जा रहा है
कि कारण क्या
है। जो वर्ग
आज यौन शोषण
के खिलाफ मुखरित
है वही जब
जिन कारणों से
ऐसी पवृत्ति की
पेरणा मिलती है
उसको रोकने का
पयास किया जाता
है तो व्यक्तिगत
स्वतंत्रता पर आघात,
सोशल पुलिसिंग कार्यवाही,
सत्रहवीं शताब्दी में ले
जाने का पयास
या फिर तालिबानी
फरमान कहकर भर्त्सना
करते हैं। इन
अपराधों में बढ़ोत्तरी
जीवन जीने की
विधि के पति
बदलते दृष्टिकोण का
आग्रह जो भौतिक
भूख बढ़ाती है,
मर्यादित आचरण से
दूर जाने का
रास्ता दिखाती है उसका
कितना पकोप बढ़
रहा है उस
पर से हमारा
ध्यान हटाया जा
रहा है।भारत में
स्त्राr-पुरुष सम्बन्ध को
पाश्चात्य दृष्टिकोण पदान करने
की दिशा पकड़ी
जा रही है।
`लिविंग रिलेशन' की वैधता
की ओर हम
अग्रसर तो हो
ही चुके हैं
अब समलैंगिक सम्बन्ध
की वैधता पर
बहस चल रही
है। जीवन के
सभी क्षेत्रों में
अभयोदित आचरण को
बढ़ावा दिया जा
रहा है। वह
चाहे वचनबद्धता को
अविश्वसनीय बनाने की हो
या फिर आचरण
के स्खलन की।
भ्रष्टाचार और दायित्व
निर्वाहन में क्षरण
इसी का परिणाम
है। हमारा फिल्म
उद्योग, विज्ञापन एजेंसियों, टीवी
चैनलों के सीरियल
और अभिव्यक्तियां पहनावे
और मर्यादित जीवन
व्यवहार शिक्षा संस्थाओं के
स्वरूप आदि के
संबंध में किस
पकार की अवधारणा
को जन्म देते
हैं, इसकी चिंता
कहां की जा
रही है। राजनीतिक
दलों के समान
छोटे स्वार्थ के
मर्यादा उल्लंघन घर-घर
की कहानी बनती
जा रही है।
इन सबसे हम
संकल्प, संस्कार और सदाचार
से दूर होते
जा रहे हैं।
आत्मसंयम के उपयोगी
भगवाकरण कहकर दूर
रहने के अभियान
चलाए जाते हैं।
मर्यादाहीन आचरण पगतिशीलता
का मानक बन
गया है। देशभक्ति
के गीत लुप्त
हो गए। छोटे
बच्चों के पा"dयक्रम को-जिसके
संस्कार स्थायी होते हैं-हटाकर भौतिक सोच
को बढ़ाने वाली
शिक्षा दी जा
रही है। शिक्षा
संस्थाओं को अवैध
आर्थिक अर्जन का स्रोत
बना दिया गया
है। परिवार-शिक्षा
संस्थों तथा समाज
संस्कार के केंद
हैं जिनसे सद्
आचरण की दिशा
में जाने की
पेरणा मिलती थी,
परिवार बिखर गए
हैं, शिक्षा संस्थाएं
व्यवसायिक केंद बन
गई हैं और
समाज विभक्तियों गंदगी
से पट रही
है। यह "ाrक है
कि ऐसी घटनाओं
पर समाज को
क्रोधित होना चाहिए
लेकिन हमने जीवन
मूल्यों के संदर्भ
में भारतीयता को
हमें समझाने की
जिस पवृत्ति को
निरंतर नकारने को जाने
अनजाने बढ़ावा दिया है
उसके चलते इस
संभावना से इंकार
नहीं किया जा
सकता कि एक
दिन वह भी
आएगा जब हम
क्षुब्ध होना ही
भूल जाएंगे।इसको क्षोभ,
रोष या शोक
व्यक्त करने कानून
बनाने विशेष अदालतें
ग"ित करने
या पुलिस पर
दोषारोपण से नहीं
रोका जा सकता।
यदि रोका जा
सकता है तो
अपने मूल की
ओर लौटने से।
पाश्विकता का स्वरूप
नाली में रहने
वाले पानी के
समान है जो
हर जीवन में
विद्यमान है। मनुष्य
को भगवान ने
विवेक भी
दिया है। उसे
विवकेशीलता को विनाश
होने से बचाने
के लिए हमें
भारतीय बनना पड़ेगा।
भारतीय के संस्कारों
को अपनाना पड़ेगा।
धर्म और कुकर्म
में अंतर समझना
और समझाना पड़ेगा।
राजनाथ सिंह `सूर्य
'(लेखक राज्यसभा के पूर्व
सदस्य हैं।)
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