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दया-भाव हमें ईश्वर के करीब लाता है





 रवीन्द्र गुप्ता
हम बचपन से पढ़ते, सुनते आ रहे हैं कि'दया धर्म का मूल है'। सभी धर्मग्रंथों में दया पर ही अधिक जोर दिया गया है। अगर आप दया नहीं कर सकते हैं तो आपका यह मानव जीवन निरर्थक है। यह तो उसी प्रकार की बात हुई कि जन्म लिया, खाए-पिए, बड़े हुए, विवाह-शादी हुई, वंशवृद्धि की परिवार को आगे बढ़ाया और कालांतर में जीवन यात्रा पूरी कर पहुंच गए भगवान के घर। ऐसा जीवन तो पशु-पक्षी भी जीते हैं।
तो फिर हम इंसानों व पशु-पक्षियों में क्या अंतर रह जाता है? बच्चों पर करें दया-छोटे बच्चे, बिलखते बच्चे, भूखे, बीमार बच्चे, वृद्ध-वृद्धा... यह फेहरिस्त काफी लंबी है। हे मनुष्य आत्माओं, तुम इन पर दया करो। तुम्हें भगवान मिलेंगे। सिर्प पूजा-हवन से भगवान नहीं मिलने वाला है। आपको ईश्वर की प्राप्ति के लिए दयालु बनना होगा। मन में दयाभाव व इंसानों के प्रति करुणा, विनम्रता व सहनशीलता रखनी होगी।
मदर टेरेसा, महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग, विनोबा भावे तथा ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि ऐसे अनेक नाम हैं जिन्होंने अपनी दया-धर्म के बल पर ही सारे संसार में अपना नाम रोशन किया। जिसकी आभा, दीप्ति से सारा जग-संसार आज भी प्रकाशमान/प्रकाशवान है। ऐसी महानविभूतियों के आदर्शों का अगर हम अनुसरण व अनुकरण करें तो संसार में कोई समस्या ही नहीं रहे।

 'सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे भवंतु निरामया' की भावना से संसार में सर्वत्र हरियाली व खुशहाली जैसा माहौल बन जाएगा। कहा भी गया है कि मानवता (इंसानियत) दुनिया को एकजुट करने वाली ताकत है।
क्या करें दया के लिए.... 'अंकल/ आंटी प्लीज... एक मिनट...' यह वाक्य आपने भी कई बार सड़क से गुजरते हुए सुना, देखा होगा। स्कूल या काम पर जाते बच्चे इस तरह की लिफ्ट मांगते हैं और लोग हैं कि 'इनको' नजरअंदाज कर निकल जाते हैं।
यह बात विडंबना की ही कही जाएगी। अरे भाई, किसी बच्चे को अगर आप अपने वाहन पर बिठाकर उसके मुकाम या उसके नजदीकी ठिकाने तक ही छोड़ दें तो आपको उसकी जो दुआएं मिलेंगी वो आपका जीवन सार्थक कर देंगी। आपको अपार खुशी तो मिलेगी ही इस बात की कि 'आज मैंने अपनी जिंदगी में एक अच्छा काम किया।'देखिएगा कि भगवान की सिर्प पूजा-पाठ व हवन-पूजन, जप तथा उसके नाम की माला फेरने-भर से कुछ नहीं होने वाला है। आपको ईश्वर-प्राप्ति की चाह है गर तो आपको अपने आचरण को थोड़ा-सा ही सही, लेकिन सुधारना जरूर होगा।
सिर्प अपने लिए ही नहीं जिएं-मन्ना डे की आवाज में पुरानी फिल्म का एक गाना है- 'अपने लिए जिए तो क्या जिए, तू जी ऐ दिल जमाने के लिए।' यह गीत आज की दौड़ती-भागती जिंदगी में बिलकुल सटीक बैठता है। आज हर किसी के पास एक ही चीज का अभाव है, वह है- समय। जब भी कोई कार्य के बारे में किसी को कहा जाता है तो वह यही कहता है कि 'यार, क्या करूं, मेरे पास टाइम नहीं है।' ये रटा-रटाया शब्द अधिकतर लोगों की जुबान पर रखा ही रहता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि पीड़ित मानवता की सेवा कैसे की जाए?
ऐसे करें सेवा..-ठीक है आपके पास समय नहीं है तो आज के मोबाइल, ई-मेल व इंटरनेट के जमाने में भी आप 'दया को अर्पित' कर सकते हैं... वो भी घर बैठे ही! वो कैसे?
 ठीक है यदि आपके पास अनाथालय (अनाथाश्रम), वृद्धाश्रम, महिला श्राविका आश्रम, महिला उद्धार गृह, कुष्ठ उद्धार गृह आदि जगहों पर जाने का समय नहीं है तो आप इन आश्रमों के फोन, मोबाइल नंबरों पर संपर्प कर अपनी दान राशि भेंट कर सकते हैं। इन आश्रमों के कर्मचारी आपके घर आकर दान राशि ले जाएंगे तथा आप पुण्य के भागी बन जाएंगे।

'रोटी सेवा' की जाए-यह लेखक अपने अनुभव आप सबके सामने साझा कर रहा है। बात कोई 2003 की है। इस लेखक को टाइफाइड, पीलिया, मलेरिया, अनिद्रा तथा जबर्दस्त दस्त की शिकायत हो गई थी। तब यहइंदौरक्लॉथ मार्केट अस्पताल में भर्ती था। इस दौरान इन्होंने देखा कि ठीक 4 बजे कुछ लोग पॉलिथीन की एक थैली में रोटी तथा एक थैली में सब्जी लेकर वार्ड-वार्ड में घूम-घूमकर मरीजों को दे रहे थे वो भी मात्र 1 रुपए में। उस समय (2003) में भी इस भोजन-सेवा की कीमत आज के 5 रुपए से कम नहीं रही होगी, पर वे मात्र 1 रुपए में यह सेवा कर रहे थे।
जानकारी लेने पर मालूम हुआ था कि कुछ लोगों ने इस सेवा हेतु एक ग्रुप बनाया हुआ है तथा ग्रुप के सदस्य हर माह अपनी आमदनी में से कुछ पैसा इस ग्रुप (संगठन) में देते हैं तथा एक बाई (खाना बनाने वाली) को रखकर खाना बनवा कर अस्पताल में सप्लाय कर दिया जाता है। ...तो है न यह सेवा का अनूठा जज्बा!
आत्मसंतुष्टि मिलती है-अगर आप किसी की एक छोटी-सी भी मदद करते हैं तो वह व्यक्ति कृतज्ञ भाव से आपकी ओर देखता है तब आपको जो आत्मसंतोष मिलता है, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है। कभी आप भूखे बच्चों को रोटी खिलाकर, फटेहाल व ठंड में ठिठुरते लोगों को वस्त्र पहनाकर, किसी सताई हुई नारी को यह दिलासा देते हुए कि 'बहन चिंता मत कर, तेरा भाई जिंदा है' उसके सिर पर अगर आप हाथ रखेंगे तो भावुकतावश आपकी आंखों से भी इस बात को लेकर अश्रुधारा बह निकलेगी कि आज मैंने जिंदगी में अच्छा काम किया है। जब ईश्वर के सामने हम अपने कर्मों का हिसाब-किताब देने हेतु खड़े होंगे तो बिलकुल निश्चिंत होंगे, क्योंकि आपके मन में यह भाव लगा रहेगा कि मैंने अपनी जिंदगी में किसी आत्मा को कभी कोई कष्ट नहीं पहुंचाया।

न बुरा बोलें व न बुरा करें-एक इंसान होने के नाते हर व्यक्ति को चाहिए कि वह कभी भी किसी को बुरा नहीं बोले और न ही कभी बुरा कर्म ही करें। अगर आप किसी को बुरा बोलते हैं तो उसके वायब्रेशन सारे वायुमंडल में फैल जाते हैं। यह अपने, सामने वाले के साथ ही वातावरण को भी प्रदूषित करते हैं, अतः सदैव मीठा बोलें। यही बात कर्म पर भी लागू होती है। हमारे कर्म जितने अच्छे होंगे, हम ईश्वर के उतने ही करीब होंगे।
रास्ते का पत्थर ही हटा दें-ठीक है आपके पास पैसे नहीं है। तो आप यह काम तो कर ही सकते हैं कि रास्ते में एक पत्थर पड़ा है, जो आते-जाते लोगों को लहूलुहान कर रहा है। कई लोग ठोकर खाकर गिर पड़ते हैं, कई को गंभीर चोट लग भी सकती है या लगती भी है। तो अपने को चाहिए कि वो पत्थर उस जगह से हटा कर एक तरफ रख दें। अपने इस जरा-से कष्ट कई लोगों को सुविधा हो जाएगी। आपका अनजाने व खामोशी से किया गया यह कर्म आपको भी आत्मसंतुष्टि देगा व लोगों की दुआएं भी आपको मिलेंगी

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