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देवर्षि नारद- पत्रकारिता के पितृ पुरुष

 


            अजहर हाशमी
देवर्षि नारद नाम सुनते ही इधर-उधर विचरण करने वाले व्यक्तित्व की अनुभूति होती है। आम धारणा यही है कि देवर्षि नारद ऐसी 'विभूति' हैं जो 'इधर की उधर' करते रहते हैं। प्राय नारद को चुगलखोर के रूप में जानते हैं। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। मेरा मत है कि नारद इधर-उधर घूमते हुए संवाद-संकलन का कार्य करते हैं। इस प्रकार एक घुमक्कड़, किंतु सही और सािढय-सार्थक संवाददाता की भूमिका निभाते हैं और अधिक स्पष्ट शब्दों में कहूं तो यह कि देवर्षि ही नहीं दिव्य पत्रकार भी हैं नारद। मेरा यह भी मत है कि महर्षि वेदव्यास विश्व के पहले संपादक हैं- क्योंकि उन्होंने वेदों का संपादन करके यह निश्चित किया कि कौन-सा मंत्र किस वेद में जाएगा अर्थात् ऋग्वेद में कौन-से मंत्र होंगे और यजुर्वेद में कौन से, सामवेद में कौन से मंत्र होंगे तथा अर्थर्ववेद में कौन से?
वेदों के श्रेणीकरण और सूचीकरण का कार्य भी वेदव्यास ने किया और वेदों के संपादन का यह कार्य महाभारत के लेखन से भी अधिक कठिन और महत्वपूर्ण था। देवर्षि नारद दुनिया के प्रथम पत्रकार या पहले संवाददाता हैं, क्योंकि देवर्षि नारद ने इस लोक से उस लोक में परामा करते हुए संवादों के आदान-प्रदान द्वारा पत्रकारिता का प्रारंभ किया। इस प्रकार देवर्षि नारद पत्रकारिता के प्रथम पुरुष/पुरोधा पुरुष/पितृ पुरुष हैं। जो इधर से उधर घूमते हैं तो संवाद का सेतु ही बनाते हैं। जब सेतु बनाया जाता है तो दो बिंदुओं या दो सिरों को मिलाने का कार्य किया जाता है। दरअसल देवर्षि नारद भी इधर और उधर के दो बिंदुओं के बीच संवाद का सेतु स्थापित करने के लिए संवाददाता का कार्य करते हैं। इस प्रकार नारद संवाद का सेतु जोड़ने का कार्य करते हैं तोड़ने का नहीं। परंतु चूंकि अपने ही पिता ब्रह्मा के शाप के वशीभूत (देवर्षि नारद को ब्रह्मा का मानस-पुत्र माना जाता है।
 ब्रह्मा के कार्य में पैदा होते ही नारद ने कुछ बाधा उपस्थित की। अत उन्होंने नारद को एक स्थान पर स्थित न रहकर घूमते रहने का शाप दे दिया।) नारद को इधर से उधर (इस लोक से उस लोक में) घूमना पड़ता है तो इसमें संवाद की जो अदला-बदली हो जाती है उसे लोगों ने नकारात्मक दृष्टि से देखा और नारद को 'भिड़ाने वाले' या 'कलह कराने वाले' किरदार के पेम में फिट कर दिया। नारद की छवि को इस प्रकार प्रस्तुत किया कि वे 'चोर को कहते हैं कि चोरी कर और साहूकार को कहते हैं कि जाग।' लेकिन यह सच नहीं है।
सच तो यह है कि नारद घूमते हुए सीधे संवाद कर रहे हैं और सीधे संवाद भेज रहे हैं इसलिए नारद सतत सजग-सािढय हैं यानी नारद का संवाद 'टेबल-रिपोर्टिंग' नहीं 'स्पॉट-रिपोर्टिंग' है इसलिए उसमें जीवंतता है। मेरे मत में पत्रकारिता, पाखंड की पीठ पर चुनौती का चाबुक है और देवर्षि नारद इधर-उधर घूमते हुए जो पाखंड देखते हैं उसे खंड-खंड करने के लिए ही तो लोकमंगल की दृष्टि से संवाद करते हैं। रामावतार से लेकर कृष्णावतार तक नारद की पत्रकारिता लोकमंगल की ही पत्रकारिता और लोकहित का ही संवाद-संकलन है। उनके 'इधर-उधर' संवाद करने से जब राम का रावण से या कृष्ण का कंस से दंगल होता है तभी तो लोक का मंगल होता है।
अत मेरे मत में देवर्षि नारद दिव्य पत्रकार के रूप में लोकमंडल के संवाददाता हैं। अविरल भक्ति के प्रतीक और ब्रह्मा के मानस पुत्र माने जाने वाले देवर्षि नारद का पुराणों में विस्तार से बारम्बार वर्णन आता है। आम आदमी नारद को भिड़ाऊ और कलह- विशेषज्ञ मानता है, परंतु इनकी यह छवि सर्वथा असत्य है क्योंकि नारद का मुख्य उद्देश्य प्रत्येक भक्त की पुकार भगवान तक पहुँचाना है। नारद विष्णु के महानतम भक्तों में माने जाते हैं और इन्हें अमर होने का वरदान प्राप्त है। हालाँकि इस अवस्था को प्राप्त करने के पूर्व नारद के भी अनेक जन्म होना बताया गया है। भगवान विष्णु की कृपा से ये सभी युगों और तीनों लोकों में कहीं भी प्रकट हो सकते हैं। शास्त्राsं में उल्लेख के अनुसार 'नार' शब्द का अर्थ जल है। ये सबको जलदान, ज्ञानदान करने एवं तर्पण करने में निपुण होने की वजह से नारद कहलाए। अथर्ववेद में भी अनेक बार नारद नाम के ऋषि का उल्लेख है।
प्रसिद्ध मैत्रायणी संहिता में नारद को आचार्य के रूप में सम्मानित किया गया है। कुछ स्थानों पर नारद का वर्णन बृहस्पति के शिष्य के रूप में भी मिलता है। सनकादिक ऋषियों के साथ भी नारदजी का उल्लेख आता है। भगवान सत्यनारायण की कथा में भी उनका उल्लेख है। नारद अनेक कलाओं में निपुण माने जाते हैं। ये वेदांतप्रिय, योगनिष्ठ, संगीत शास्त्राr, औषधि ज्ञाता, शास्त्राsं के आचार्य और भक्ति रस के प्रमुख माने जाते हैं। ये भागवत मार्ग प्रशस्त करने वाले देवर्षि हैं और 'पांचरात्र' इनके द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथ है। वैसे 25 हजार श्लोकों वाला प्रसिद्ध नारद पुराण भी इन्हीं द्वारा रचा गया है। पुराणों में इन्हें भगवान के गुण गाने में सर्वोत्तम और अत्याचारी दानवों द्वारा जनता के उत्पीड़न का वृतांत भगवान तक पहुँचाने वाला त्रैलोक्य पर्यटक माना गया है। कई शास्त्र इन्हें विष्णु का अवतार भी मानते हैं और इस नाते नारदजी त्रिकालदर्शी हैं। ब्रह्मवैवर्तपुराण के मतानुसार ये ब्रह्मा के कंठ से उत्पन्न हुए और ऐसा विश्वास किया जाता है कि ब्रह्मा से ही इन्होंने संगीत की शिक्षा ली थी।
कहते हैं कि दक्ष प्रजापति के 10 हजार पुत्रों को नारदजी ने संसार से निवृत्ति की शिक्षा दी जबकि ब्रह्मा उन्हें सृष्टिमार्ग पर आरूढ़ करना चाहते थे। ब्रह्मा ने फिर उन्हें शाप दे दिया था। इस शाप से नारद गंधमादन पर्वत पर गंधर्व योनि में उत्पन्न हुए। इस योनि में नारदजी का नाम उपबर्हण था। एक अन्य कथा के अनुसार दक्षपुत्रों को योग का उपदेश देकर संसार से विमुख करने पर दक्ष ाgढद्ध हो गए और उन्होंने नारद का विनाश कर दिया। फिर ब्रह्मा के आग्रह पर दक्ष ने कहा कि मैं आपको एक कन्या दे रहा हूँ, उसका काश्यप से विवाह होने पर नारद पुन जन्म लेंगे। कहते हैं कि भगवान विष्णु ने नारद को माया के विविध रूप समझाए थे। एक बार यात्रा के दौरान एक सरोवर में स्नान करने से नारद को स्त्राrत्व प्राप्त हो गया था। स्त्राr रूप में नारद 12 वर्षों तक राजा तालजंघ की पत्नी के रूप में रहे। फिर विष्णु भगवान की कृपा से उन्हें पुन सरोवर में स्नान का मौका मिला और वे पुन नारद के स्वरूप को लौटे।
दक्ष ने ही इन्हें सब लोकों में घूमते रहने का शाप दिया था। यह भी मान्यता है कि पूर्वकल्प में नारदजी उपबर्हण नाम के गंधर्व थे और रूपवान होने की वजह से वे हमेशा सुंदर स्त्रियों से घिरे रहते थे। इसलिए ब्रह्मा ने इन्हें शूद्र योनि में पैदा होने का शाप दिया था। नारद की अहंकार मर्दन की कथा भी बहुत प्रसिद्ध है और अनेक प्रकार से बखान की गई है। नारदजी को अहंकार आ गया कि उन्होंने काम पर विजय प्राप्त कर ली है। भगवान ने एक बार अपनी माया से एक नगर का निर्माण किया, जिसमें एक सुंदर राजकन्या का स्वयंवर चल रहा था। यह कथा तुलसीदासजी ने श्रीरामचरित मानस के बालकांड में दी है। नारदजी ने भगवान के पास जाकर उनका सुंदर मुख माँगा ताकि राजकुमारी उन्हें पसंद कर ले।
 परंतु अपने भक्त की भलाई के लिए भगवान ने नारद को बंदर का मुँह दे दिया। स्वयंवर में राजकन्या (स्वयं लक्ष्मी) ने भगवान को वर लिया।

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