सूचना के अधिकार का कानून वर्ष 2005 में बनकर लागू हुआ था, विगत लगभग 8 वर्ष की इस यात्रा में इस कानून ने लोकतंत्र में नागरिकों को एक नई दिशा पदान की। नागरिकों के मन में यह जिज्ञासा गति पकड़ने लगी कि सरकारी विभागों में पक्रियाओं का दौर किस पकार चल रहा है? इस जिज्ञासा को शान्त करने के लिए भारत के नागरिकों ने सरकारी विभागों तथा सरकार के अनुदान से चलने वाली संस्थाओं के समक्ष सूचना के अधिकार के अन्तर्गत सूचनाएं मांगनी पारम्भ कर दी। इसी परम्परा में आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल तथा अनिल वैरवाल ने विभिन्न राजनीतिक दलों से उन्हें मिलने वाले चन्दे आदि के बारे में जानकारी मांगी, दानदाताओं के नाम पते का ब्यौरा पूछा। राजनीतिक दलों ने सूचना के अधिकार के अन्तर्गत इन पार्थना पत्रों का जवाब देने से इन्कार करते हुए कहा कि राजनीतिक दल इस कानून के अन्तर्गत नहीं आते।
आरटीआई कार्यकर्ताओं ने राजनीतिक दलों के द्वारा इस पकार के इन्कार के विरुद्ध केन्दीय सूचना आयोग के समक्ष अपीलें पस्तुत की। इन अपीलों के पीछे मुख्य तर्प यह थे कि पथम राजनीतिक दलों को केन्द सरकार द्वारा परोक्ष रूप से भारी वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है। दूसरा इन राजनीतिक दलों का कामकाज सार्वजनिक पद्धति का है और ये राजनीतिक दल विभिन्न संवैधानिक और कानूनी पावधानों के तहत जवाबदेह हैं। परोक्ष वित्तीय सहायता के नाम पर इन राजनीतिक दलों को दिल्ली के पमुख इलाकों में बहुत बड़े भूखण्डों पर फैले बड़े-बड़े बंगले, कार्यालय आदि के लिए उपलब्ध कराये जाते हैं। इन बंगलों के अतिरिक्त कई सरकारी आवास भी इन राजनीतिक दलों को आबंटित किये जाते हैं। इस पकार यह राजनीतिक दल बहुत बड़ी राशि का आर्थिक फायदा सरकारों से पाप्त करते हैं। इसके अतिरिक्त इन राजनीतिक दलों को आयकर से मिलने वाली छूट भी बहुत भारी परोक्ष आर्थिक लाभ है। चुनावों के समय आकाशवाणी तथा दूरदर्शन के माध्यम से विचार पसारित करने के लिए इन्हें निःशुल्क समय दिया जाता है।
सूचना का अधिकार कानून की धारा-2एच में सार्वजनिक संस्था को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि इसमें केन्द और राज्य सरकारों के अतिरिक्त वे संस्थाएं भी आती हैं जो या तो इन सरकारों के स्वामित्व में होती हैं या नियत्रण में होती हैं या उन्हें इन सरकारों के द्वारा पमुख रूप से वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाती है। इसी पावधान में यह भी स्पष्ट कहा गया है कि वे सब गैर सरकारी संगठन जो किसी भी सरकार के द्वारा पमुख रूप से वित्तीय लाभ पाप्त करते हैं उन्हें भी सूचना के अधिकार कानून के दायरे में समझा जायेगा।
केन्दीय सूचना आयोग ने 6 बड़े राजनीतिक दलों (कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, राकांपा और बसपा) के विरुद्ध उक्त निर्णय में यह स्पष्ट कर दिया है कि किसी भी नागरिक द्वारा इन दलों से कोई भी सूचना मांगे जाने पर इन्कार नहीं किया जा सकता। केन्दीय सूचना आयोग ने वित्तीय सहायता पर आधारित तर्प के अतिरिक्त इन राजनीतिक दलों के सार्वजनिक कामकाज के आधार पर भी इन्हें जनता के पति जवाबदेह माना है। सूचना आयोग ने इन राजनीतिक दलों को यह भी नसीहत दी है कि वे संवैधानिक राष्ट्र की महत्वपूर्ण संस्थों हैं। वे गैर सरकारी होने के बावजूद भी पत्यक्ष और परोक्ष रूप से अनेकों सरकारी अधिकारों के पयोग को पभावित करते हैं। सूचना आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय का भी संदर्भ पस्तुत किया है जिसमें अदालत ने कहा था कि भारत की जनता को अपने राजनीतिक दलों की आय और व्यय के स्रोत का ज्ञान रखना चाहिए।
यह राजनीतिक दल वास्तव में संवैधानिक संस्थाओं के अन्तर्गत कार्य करने वाले संगठन हैं। इनका पंजीकरण चुनाव आयोग जैसी संवैधानिक संस्था द्वारा संवैधानिक मान्यताओं के आधार पर किया जाता है। इन संगठनों को भी संवैधानिक पावधानों का पालन करना होता है। इसलिए किसी दृष्टि से भी इन राजनीतिक दलों को पूर्ण रूप से स्वछन्द गैर सरकारी संस्था नहीं माना जा सकता।
सूचना आयोग के इस निर्णय और सूचना कानून के पावधानों से यह बात स्पष्ट होती है कि पत्यक्ष या परोक्ष वित्तीय सहायता, सार्वजनिक कार्यों को सम्पन्न करना और संवैधानिक तथा कानूनी संस्थाओं और पावधानों के अन्तर्गत कार्य करना, यह तीन विशेष तर्प हैं जो किसी भी संस्था को सूचना के अधिकार के अन्तर्गत लाने के लिए आवश्यक हैं। सूचना अधिकार कानून ने राजनीतिक दलों को अपने दायरे में शामिल करने के स्पष्ट निर्णय में 8 वर्ष का समय लगा दिया। परन्तु आज भी बहुत से ऐसे आयाम शेष हैं जिन पर विशेष दृष्टि की जरूरत है।
आज हमारे देश में धार्मिक, सामाजिक और कई अन्य पकार की संस्थाओं को सरकार से कई पकार के परोक्ष लाभ पाप्त होते हैं, जैसे निःशुल्क या कम दरों पर भूखण्ड मिलना, सीधी वित्तीय सहायता, दान पर पाप्त होने वाली आयकर छूट और इन संस्थाओं की आय पर कर न लगना आदि। इन संस्थाओं द्वारा स्पष्ट रूप से सार्वजनिक कार्यों का सम्पादन तो किया ही जाता है। यह संस्थों बाकायदा संवैधानिक नहीं तो विशेष कानूनों के अन्तर्गत पंजीकृत होती हैं, जैसे सोसाइटी रजिस्ट्रेशन एक्ट या ट्रस्ट एक्ट इत्यादि। इसलिए राजनीतिक दलों पर लगने वाले तीनों तर्प इन सभी धार्मिक और सामजिक संस्थाओं पर लागू होते हैं। आधुनिक युग में कुछ स्वार्थी तत्व भी इन धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं में पवेश पाप्त करके अपने वित्तीय स्वार्थ पूरे करने में जुट जाते हैं। इन संस्थाओं को धार्मिक और समाजसेवी जनता अपना दान आदि यह सोचकर देती है कि यह उनके जीवन का धार्मिक कार्य है। इन संस्थाओं के द्वारा सार्वजनिक कार्य पणाली के दौरान इस धन का दुरुपयोग करने की घटनों भी आज राजनीतिक और सरकारी घोटालों की तरह फल-फूल रही हैं। इसलिए जागरूक नागरिकों को धार्मिक और समाजसेवी संस्थाओं के कार्यों पर भी पूरी नजर रखनी चाहिए और संदेह होने पर सूचना के अधिकार के अन्तर्गत विस्तृत जानकारी पाप्त करने का पयास करना चाहिए।
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